मनुष्य के विकास को ले कर एक बार एक प्रयोग किया गया. दो बच्चों को उन के जन्मते ही घने जंगल में गुफा के भीतर रख दिया गया. उन्हें खाना तो दिया जाता था लेकिन उन की किसी प्रकार परवरिश नहीं की गई। उन्हें भाषा नहीं सिखाई गई, कपड़े पहनने नहीं सिखाए गए और शरीर की देखभाल करना नहीं सिखाया गया. एक तरह से ये बच्चे मानव समाज और उसकी सभ्यता से दूर रखे गए।
कुछ सालों बाद बच्चों को परखा गया, तो पाया गया कि ये एक तरह से आदिमानव बन गए थे। लंबेलंबे बाल और उलझी जटाएं, लंबे नाखून.. पूरा मानव शरीर जानवरों के समान दिख रहा था। न ये बोलना जानते थे, न इन से बोली गई बात ही समझ पाते थे। सभ्य मानव के कोई लक्षण इन में नहीं थे।
इस से जो निष्कर्ष निकला, वह दर्शाता है कि व्यक्ति में संस्कार डाले जाते हैं।
व्यक्ति को बोलना, पढ़ना, लिखना सिखाया जाता है।
व्यक्ति की परवरिश के हर पहलू पर ध्यान दिया जाता है, तब जाकर वह सभ्य मानव बनता है। विकसित समाज का एक हिस्सा बनता है।
कुछ बच्चों में स्वभावतः दूसरों की सहायता करने की भावना होती है। उन्हें किसी की सहायता करने के लिए कहने की आवश्यकता नहीं होती। यही बात आयशा के साथ थी। जैसे ही वह अपनी या किसी अन्य अध्यापिका को हाथ में किताबों और कापियों का बोझा लेकर चलती हुई देखती वह दौड़कर उनके पास पहुँचती और उनके हाथ से पुस्तकों को ले लेती। अध्यापक के कक्षा में आने से पहले उसका ध्यान ब्लैक बोर्ड (श्याम पट्ट) पर अवश्य जाता और वह उसे साफ़ कर एक चॉक तथा डस्टर अवश्य रख देती। अगर वह माली को दो घड़ों में पानी उठाकर जाते हुए देखती तो वह उससे एक लेकर पौधों को पानी देना प्रारंभ कर देती। सड़क पर गिरा हुआ कोई पत्थर उठाना, कागज़ के टुकड़ों को कूड़ेदान में डालना, किसी गिरे हुए बच्चे को उठाना, स्कूल के कार्यक्रम में मंच के पीछे हर प्रकार की मदद देना, कक्षा के बाद आर्ट कक्षा की सफ़ाई करना, तानपुरे को उसके खोल में डाल देना, हॉकी स्टिक को खेल के मैदान में ले जाना और खेल के बाद उन्हें फिर बटोर कर लाना, किसी खास मौके पर मिठाई बाँटना, यह सब उसके लिए बड़ा ही स्वाभाविक था। वह चुपचाप शांत भाव से मुसकुराते हुए यह सब कुछ करती थी। उसे ऐसा कभी नहीं लगता था कि वह कोई असाधारण बात कर रही है। उसके लिए तो यह सब बहुत की स्वाभाविक था और दूसरों की सहायता करने में उसे बहुत खुशी होती थी।
जब पाठशाला में सामाजिक दस्ता (समाज सेवा दल) बनाने की योजना की घोषणा की गई तब सबसे पहले उसने अपना नाम दिया हालांकि यह कार्य बड़े विद्यार्थियों के लिए था। उसने अपनी अध्यापिका से प्रार्थना की कि उसे भी चुन लिया जाए और नौवीं तथा दसवीं कक्षा के स्वयंसेवकों की सहायता के लिए उसे रखा जाए। वे सब उसे इतना प्यार करते थे कि उन्होंने इस बात का स्वागत किया। पहला अभियान स्थानीय अस्पताल के बच्चों के शिशु केंद्र का था। वहाँ पहली बार उसने मनुष्य की ऐसी पीड़ा का सामना किया जो पहले कहीं नहीं देखी थी। यह देखकर उसका दिल भर आया। वह उस समय केवल बारह साल की थी और एक लड़के को जिसके घुटने की हड्डी टूट गयी थी पलस्तर में देखना, एक लड़की को बैसाखी के सहारे लंगड़ाते हुए चलते देखना, एक छोटे बच्चे को गाड़ी में देखना पोलियो वाले एक बच्चे को एक प्रकार की गाड़ी में देखना जिसे पोलियो की बीमारी हो गई थी, एक अन्य लड़के के कंधे में पलस्तर देखना और इसी प्रकार के कई दूसरे बच्चों को देखन उसके लिए एक पीड़ा दायक अनुभव रहा होगा। पहले दिन वह एकदम चुप थी और बड़ी कक्षाओं के छात्रों के साथ रहने में ही उसने संतोष कर लिया। सरला ने बड़े प्यार से उसक हाथ थामा था इससे उसने बड़ी बहादुरी का अनुभव किया और एक दो मुलाकातों के बाद तो वह नियमित रूप से केंद्र में जाने लगी। वह छोटे बच्चों को कहानियाँ पढ़कर सुनाती, चुटकुले सुनाती या उनकी मदद करती सब लोग कहते कि वह बड़ी होकर एक अच्छी नर्स या डाक्टर बनेगी क्योंकि उसके दिल में इतनी दया थी। इन बच्चों की सहायता करते-करते वह अपने घर के पास-पड़ोस विभिन्न तरह के विकलांग लोगों के बारे में सोचने लगी बैसाखी के सहारे चलता बूढ़ा, एक नेत्रहीन लड़की जो बहुत ही अच्छा गाती थी, टोकरी बुनने वाला आदमी जिसके पैर नहीं थे और जो सड़क के किनारे बैठ कर टोकरी बुनता था सचमुच वह एक संवेदनशील लड़की थी।
शायद आयशा के अंदर यह संवेदनशीलता भरने में उसके घर के वातावरण का बहुत बड़ा हाथ था। उसकी माँ प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका थी और पिताजी बैंक में काम करते थे। वे दोनों ही बहुत मेहनती थे लेकिन आयशा सदा ही यह देखती कि किस प्रकार पिता घर के कामों में उसकी माँ का हाथ बंटाते हैं। वे बाजार जाते, सब्जी काटले, खाना बनाकर और बरतन साफ़ करते । जब तक आयशा पाँच साल की नहीं हुई तब तक उसे सुलाने की जिम्मेदारी भी उन्होंने अपने ऊपर ली थी। उसकी माँ भी घर के काम-काज में बहुत ही कुशल थी और इसके साथ ही वह पिताजी की चिट्ठियाँ लिखने और अन्य कार्य में हाथ बँटाती थी क्योंकि वह अंग्रेजी में एम.ए. थी। आयशा ऐसे सुरक्षित तथा संतोषप्रद वातावरण में बड़ी हुई और बिना किसी कठिनाई के बड़े ही स्वाभाविक रूप से उसने दूसरों की सहायता करना सीख लिया।
लेकिन एक दिन आयशा ने यह अनुभव किया कि रूमी के पिताजी उसके पिता के समान नहीं। रूमी में घर के कामों में हाथ बँटाने की भावना नहीं होती। वह अपने पड़ोसी के घर गई हुई थी। उसका मित्र शंकर वहाँ रहता था। वह भी उसी की उम्र का था हालांकि वह शहर में लड़कों के दूसरे स्कूल में जाता था। शंकर की माँ सारा खाना खुद बनाती। आयशा ने देखा कि उनका अधिकांश समय रसोई घर में पति और बेटे के लिए पूरी, आलू, गुलाब जामुन तथा अन्य कई प्रकार के पकवान बनाने में बीत जाता है। शंकर के पिता का अपना धंधा था और वह पूरा दिन बाहर रहते। जब वह शाम को घर लौटते तो वह चाहते कि उनकी पत्नी उनकी देखभाल करे।
अपनी पत्नी से वे बहुत कड़ाई से बात करते। उनका बात करने का ढंग भी बड़ा कठोर था और वे मानते थे कि औरतों को अधिक बोलने के लिए प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए इसका नतीजा यह कि पति-पत्नी आपस में बहुत कम बाते करते और यह बात बड़ी स्पष्ट थी कि घर में केवल उनके पिता की चलती है। शंकर की माँ यह सब भाग्य की बात सोच कर स्वीकार कर लेती। यहाँ तक कि वह तो शंकर के सामने ही आयशा से यह कहती कि कुछ भी हो वह एक औरत है और औरतों का काग ही घर की देखभाल करना और पुरुषों का ध्यान रखना है। शंकर इन सब बातों को बिना कुछ पूछे स्वीकार कर लेता। ऐसे ही विचारों को लेकर वह बड़ा हुआ। एक दिन जब आया ने शंकर से यह पूछा कि वह रसोई घर के कामों में अपनी माँ की सहायता क्यों नहीं करता तब उसने बड़े घमण्ड से जवाब दिया, "अरे वह तो लड़कियो का काम है। मैं रसोई घर में नहीं जाता। मैं तो पायलट बनकर हवा में उड़ने वाला हूँ। देखो यह मेरा छोटा हवाई जहाज।
आयशा यह सुनकर दुखी हो जाती और सोचने लगती कि क्या केवल लड़कों को ही बाहर के रोमांचक तथा मज़ेदार जीवन के आनंद का हक है और लड़कियों के लिए क्या घर पर रहकर खाना पकाना ही सब कुछ है। उसने अपनी माँ से पूछा कि क्यों शंकर के माता-पिता का स्वभाव अलग है और क्यों लड़कियों को घर के अंदर ही कैद रहना चाहिए। उसकी माँ ने उसे बताया कि आज कल लड़कियों के लिए कई व्यवसायों के रास्ते खुले हैं। वे डाक्टर तथा अध्यापिकाओं के अलावा वायुयान परिचारिका, इंजीनियर, नर्स, टूरिस्ट गाइड, अनुसंधाता, रिशेपशनिस्ट, टेलिफोन ऑपरेटर आदि बन रही हैं। लड़कियाँ अंतर्राष्ट्रीय खेलों, पर्वतारोहण आदि में भी भाग ले रही हैं। इसी तरह आजकल पुरुष घर के कामों में सहायता करते हैं क्योंकि नौकर या तो मिलते नहीं और यदि मिलते भी हैं तो बहुत महंगे हैं। उसकी माँ ने कहा कि अब समय बदल रहा है और औरत केवल घर नहीं देखती हालांकि घर की देखभाल भी उतनी ही जरूरी है और माँ को घर की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आयशा के पिताजी बहुत ही अच्छे हैं और अन्य पुरुषों को भी उन्हीं के समान होना चाहिए।
अब यह बताओ कि तुम क्या सोचते हो क्या तुम यह सोचते हो कि लड़कियों को केवल रसोई घर में ही रहना चाहिए और लड़कों को उससे कोई संबंध नहीं? शंकर का यही विचार था क्योंकि उसके माता-पिता ने उसके सामने वही उदाहरण रखा था। शायद तुम इस विषय पर चर्चा कर सकते हो।
साथ ही यह भी सोचो कि आयशा में दूसरों की सहायता करने की भावना कैसे आई। क्या यह उसे जन्म से ही मिली थी या उसके घर के वातावरण में मिली ? तुम्हारे अंदर के गुणों के विकास में घर के वातावरण का कितना हाथ है ? शिक्षकों के विचारों की तुम्हारे विचारों के निर्माण में क्या भूमिका है? क्या तुम उनसे प्रभावित होते हो ? क्या तुम अपने स्कूल के बाहर के दोस्तों से प्रभावित हुए हो ? इन पर जरा सोचो।